UPPradesh एक्सक्लूसिव- 11 बार की सुलह की कोशिश के बाद आया राममंदिर का फैसला

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अयोध्या: रामलला को जमा करना पड़ेगा 2 करोड़ रुपये का विकास शुल्‍क, पास हुआ राम मंदिर का नक्‍शा
अयोध्या: रामलला को जमा करना पड़ेगा 2 करोड़ रुपये का विकास शुल्‍क, पास हुआ राम मंदिर का नक्‍शा

अनुराग शुक्ला

पांच अगस्त को अयोध्या की रामजन्मभूमि पर रामलला के मंदिर का भूमि पूजन होगा। खुद प्रधानमंत्री इस आयोजन का हिस्सा बनेंगे। इस सैकड़ों साल पुराने विवाद को हल करने के लिए 11 बार सुलह की कोशिश की गयी । सबने नई कोशिश मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद कोर्ट की देखरेख में आर्ट आफ लिविंग के प्रमुख और धर्मगुरु श्री श्री रविशंकर द्वारा की गयी। इस मध्यस्थता के 2 अगस्त 2019 को फेल होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 6 अगस्त को मामले की हर रोज सुनवाई के आदेश दे दिए। 16 अक्टूबर 2019 को 40 दिन की सुनवाई पूरी होने बाद 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम की पांच जजों की बेंच ने 70 साल से देश के विभिन्न कोर्ट्स में चल रहे इस मुकदमे का फैसला रामलला विराजमान के पक्ष में दिया। इस बेंच में देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीन न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के अलावा जस्टिस डी वाई चंद्रचूड, जस्टिस एस एक बोबड़े, जस्टिस एस अब्दुल नजीर और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे

दस बार नाकाम रही है सुलह की कोशिश

लखनऊ-अयोध्या। रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद के मुद्दे का हल सुलह समझौता से करना सबका सपना रहा है। इस बार एक और कोशिश की गयी है। ये कोशिश कोई नयी नहीं है। इससे पहले भी एक दो नहीं पूरे दस बार तो दोनो पक्षों ने इस मुद्दे का हल निकालने की कोशिश की। इन कोशिशों में कई बार सरकार और कई सरकारों के नुमाइंदे भी बैठे। बात काफी हद तक बढ़ गयी लगा ये मुद्दा अब इतिहास बन अयोध्या के भविष्य की नई इबारत लिखेगा। पर सियासतदां तो कभी दोनो पक्ष में से किसी एक ने ऐन वक्त पर सुलह को ठेंगा दिखा दिया।

सबसे पहले इस मुद्दे की सुलह की कोशिश की गयी पच्चीस साल पहले यानी 1985 में। ये कोशिश थी तो स्थानीय स्तर पर पर इसको तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह का भी समर्थन मिला था। बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि समस्या समाधान समिति बनाकर स्थानीय लोगों ने इस कोशिश को अंजाम दिया था। ये कोशिश काफी हद तक परवान भी चढी। इस कोशिश का लब्बोलुबाव ये था। कई इस्लामिक देशों में विकास के लिये मस्जिदों को कुछ दूर स्थानांतरित किया जाता है। उसी तर्ज पर मस्जिद को उस जगह से हटाकर महज कुछ दूर परिक्रमा मार्ग पर स्थापित किया जाय। इसके लिये देश भर के मुस्लिम विद्वानों की सहमति भी हासिल हो गयी थी।  सूडान पाकिस्तान और मिस्त्र के उलेमा ने इसके लिये फतवा भी जारी कर दिया। साथ ही ईरक और ईरान के इस्लामिक विद्वानों से भी बात कर ली गयी।  एक प्रतिनिधिमंडल बनाया गया। प्रिंस अंजुम कदर भी इस प्रतिनिधिमंडल के हिस्सा बने। लेकिन सारी प्रगति धरी की धरी रह गयी जब इसे अखबारों की सुर्खियों में जगह मिली। दोनों पक्षों और आम लोगों के गुस्से को देखते हुए इसे तुरंत ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

दूसरी कोशिश थी 1986 की। ये कोशिश भी अयोध्या फैजाबाद के स्थानीय लोगों ने ही की थी। हांलाकि ये कोशिश तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की सरपरस्ती में की गयी। अयोध्या गौरव समिति नाम के ट्रस्ट के बैनर तले ये कोशिश की गयी। इसका अध्यक्ष बनाया गया महंत नृत्य गोपाल दास को। इस ट्रस्ट के महामंत्री बने फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह और कोषाध्यक्ष बने श्यामनारायण बंसल। साथ ही फैजाबाद के सांसद निर्मल खत्री,  अयोध्या के राजपरिवार के वंशज विमलेंद्र मोहन मिश्र और अयोध्या के सभी बड़े साधुओं को इसका सदस्य बनाया गया। इस ट्रस्ट में रामविलास वेदांती शामिल नहीं हुए। भाईचारे से ही समस्या का हल निकालने के लिये इस ट्रस्ट ने सुलह की कोशिश की। इसे काफी सफलता भी मिली। इसी सिलसिले में दिल्ली में सांसद शहाबुद्दीन के 14 जनपथ आवास पर बैठक भी की गयी इस बैठक में केरल मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद कोया, आंध्र प्रदेश के सिकंदराबाद के कांग्रेसी नेता उवैसी समेत देश के कई बडे़ मुस्लिम नेता मौजूद थे। इन सभी नेताओं ने माना कि अयोध्या में राम का मंदिर बने तो दरियादिली दिखाकर मुस्लिम राष्ट्रीय राजनीति मे मुख्यधारा में आ सकते हैं। मुसलमानों के विकास की बात भी की जा सकती है। साथ ही नफरत का बीज फैलने से रोका जा सकता है। इसके अलावा इस बात पर भी सहमति थी कि किसी भी वर्ग की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिये। इस बातचीत के बाद अयोध्या के दिगंबर अखाडे में विहिप के 13 बडे नेताओं की सहमति ली गयी। इसमें रामजन्मभूमि न्यास के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. श्री रामचंद्र दास परमहंस गोरक्ष पीठ के प्रमुख महंत अवैद्यनाथ, रामजन्मभूमि न्याय के वर्तमान अध्यक्ष नृत्यगोपाल दास जैसे आंदोलन के बडे़ नेता थे।  जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल समेत सभी लोगों ने विवादित परिसर का दौरा किया। सहमति के अनुसार तय ये किया गया कि विवादित मस्जिद को चारो तरफ से 11 फीट की दीवार से घेर दिया जायेगा और राममंदिर की शुरुआत रामचबूतरे से की जायेगी। आर एस एस के मुखपत्र आर्गनाइजर और पांचजन्य में 26 दिसंबर 1986 को ये समाचार प्रकाशित कर दिया गया। आर एस एस के उपप्रमुख भाउराव देवरस से इस फार्मूले पर उनकी  सहमति भी ले ली गयी। इसके गवाह खुद दिल्ली की नेता निर्मला देश पांडे, वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह, अयोध्या के साकेत महाविद्यालय के हिंदी प्रवक्ता रमाशंकर त्रिपाठी थे। ये प्रतिनिधि मंडल बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भी मिला। उनसे मुस्लिम धार्मिक स्थल सरंक्षण कानून बनाने का आग्रह किया। ये मुलाकात एक दिसंबर 1990 को हुई। इसी दिन सुश्री विजय लक्ष्मी पंडित का निधन हो गया। बाद में ये सुलह की कोशिश अपनी दिशा से भटक कर खो गयी। कहते तो ये भी हैं कि इस सुलह की कोशिश को लेकर आर एस एस में ही मतभेद था। यही वजह थी कि इस कोशिश को सत्ता की लालच में जिसे बाद में धीरे धीरे ठंडा कर दिया गया।

तीसरी कोशिश 20 अक्टूबर 1990 को की गयी। इसी दिन आध्यात्मिक गुरुओ की बातचीत भी हुई। इस बातचीत के पीछे पूर्व उपराष्ट्रपति क़ृष्णकांत, बिहार के पूर्व राज्यपाल यूनुस सलीम, स्वामी चिनमयानंद और अब्दुल करीम पारिख का बडा योगदान था। इस बैठक में हिंदू पक्ष की तरफ से 14 और मु्स्लिम पक्ष से 12 विद्वानों ने भाग लिया। इस बैठक के बाद आठ लोगों की एक समिति बनायी गयी। इसमें स्वामी चिनमयानंद, मौलाना कल्बे सादिक, स्वामी सत्यमित्र, मौलाना मुफ्ती, स्वामी जगदीश मुनि, अशरफ अली मौलाना सलीम और मौलाना अब्दुल करीम पारिख शामिल हुए। इस समझौते में कुछ हल तो निकल कर नहीं आया पर इतना जरुर हुआ कि केंद्र सरकार ने इसके बाद 1990 में रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद क्षेत्र का अध्यादेश जारी कर दिया। इस समिति की कोशिश थी कि वार्ता जारी रखी जाय और न्यायालय के फैसले का इंतजार कर यथास्थिति बनायी जाय। बाद में कारसेवा के दौर में तीस अक्टूबर और दो नवंबर 1990 की घटना ने इस वार्ता पर भी ब्रेक लगा दिये।

चौथी कोशिश 01 दिसंबर 1990 को एक और पहल की गयी। इसमें विहिप और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने दोतरफा सीधी बातचीत की कोशिश की। इस बैठक में विहिप के विष्णु हरि डालमिया आचार्य गिरिराज किशोर, श्रीशचंद्र दीक्षित समेत कई बडे नेता शामिल हुए। इसी सुलह की कोशिश के दौरान दोनों पक्ष एक बार फिर 14 दिसंबर 1990 को मिले। इस बैठक में तत्कालीन गृहराज्य मंत्री, यूपी, महाराष्ट्र दिल्ली और राजस्थान के मुख्यमंत्री शामिल थे। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी की तरफ से साफ कर दिया गया कि इस बात के कोई सुबूत नहीं हैं कि मंदिर तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है। राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत ने दोनों पक्षों को अपना सुबूत पेश करने की पेशकश की। इसके बाद 10 जनवरी 1991 को गुजरात भवन में एक बैठक हुई। इसमें मुस्लिम पक्ष ने डॉ ए अख्तर, डॉ आर एस शर्मा, डॉ एन झा और सूरजभान को विशेषज्ञ के तौर पर पेश किया। वहीं विहिप ने जस्टिस जी एम लोढ़ा, जस्टिस देवकी नंदन अग्रवाल, जस्टिस डी पी सहगल समेत कई विशेषज्ञ पेश किये। इस बैठक में इतिहासकार प्रो बी बी लाल की रिपोर्ट का शामिल ना होना विवाद का विषय बना। इस समिति ने अपना निषकर्ष दिया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को गिराकर हुआ इसका साक्ष्य मौजूद नहीं है। लेकिन ये निष्कर्ष भी दोनों पक्षों को मंजूर नहीं हुआ मामला के हल के लिये दोनों पक्षों ने फिर कोर्ट के फैसले की बात कही।

छठी कोशिश 12 जनवरी 1991 को शिया कांफ्रेंस ने की। दिल्ली के अशोका होटल में एक सम्मेलन किया। इस मकसद अयोध्या विवाद का हल और सांप्रदायिक सौहार्द की बहाली को लेकर था। इस सम्मेलन में सैय्यद शहाबुद्दीन, जी एन बनातवाला, मौलाना कल्बे सादिक समेत 10 बडे मुस्लिम नेताओं और महंत अवैद्यनाथ, श्रीशचंद्र दीक्षित, दाउदयाल खन्ना समेत नौ हिंदू नेताओं ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन के माध्यम से हल तो कुछ नहीं निकला पर केंद्र सरकार से दोनों पक्षों ने दो मुद्दों पर अपील की। पहला ये कि सरकार जल्द से जल्द इस बात का पता लगाया जाय कि बाबरी मस्जिद की जगह पर कोई मंदिर था। दूसरा ये कि मुकदमे की जल्द से जल्द सुनवाई खत्म की जाय।

सातवीं कोशिश छह दिसंबर 1992 के बाद 3 जनवरी 1993 को केंद्र सरकार ने विवादित स्थल और उसके आस पास की 67 एकड़ भूमि को अधिग्रहीत करने के बाद शुरु हुई। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव ने रामालय ट्रस्ट बनाकर इस भूमि में मंदिर मस्जिद पुस्ताकालय संग्रहालय बनाने की घोषणा की। इसमें स्वामी शंकराचार्य, स्वामी स्वरूपानंद, चाऱ अन्य शंकराचार्य और अयोध्या के चार संतों सीताराम शरण, कौशल किशोर फलाहारी, स्वामी पुरुषोत्माचार्य और स्वामी युगल किशोर शास्त्री को शामिल किया गया। साथ ही मस्जिद ट्रस्ट भी बनाने की घोषणा की गयी। जिसमें दिल्ली वक्फ बोर्ड के तत्कालीन सभापति मौलाना जमील इलयासी को शामिल किया जाना था। मौलाना वहीउद्दीन ने ये भी राय दी कि मुस्लिमों को मस्जिद का दावा खुद ही छोड़ देना चाहिये। इस बात से मुस्लिम समुदाय खासा नाराज हुआ और दोनो ही ट्रस्ट अस्तित्व में नहीं आ सके।

आठवीं और नवीं कोशिश के तहत आठ मार्च 2002 और 16 जून 2003 को कांची कामकोटि के शंकराचार्य के पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीत दो बार बातचीत हुई। दोनो ही बार मामला कोर्ट से सुलझाने और न्यायालय का सम्मान करने की बात पर सहमति बन पायी। शंकराचार्य ने एक अपील भी की जिसे मुस्लिम पक्ष ने अस्वीकार कर दिया। इस अपील के मुताबिक विवादित परिसर और गैरविवादित भूमि को अलग कर रामजन्मभूमि न्यास को गैरविवादित भूमि पर मंदिर बनाने दिया जाय। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के वादी हाशिम अंसारी समेत आधा दर्जन से ज्यादा मुस्लिम नेताओं ने प्रधानमंत्री को ये चिट्ठी लिखी कि उन्हें ये मंजूर नहीं कि किसी समझौते के तहत उन्हें विवादित परिसर को खाली कराया जाय। उनके मुताबिक वार्ता का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को है।

दसवीं कोशिश के तहत 2003 में और जामा मस्जिद ट्रस्ट बनाकर समझौता करने की कोशिश की गयी पर ये कामयाब नहीं हो सकी। छह दिसंबर 2003 को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक सम्मेलन बुलाकर ये कोशिश की पर कोई समाधान नहीं निकल सका।

इतनी कोशिशों के बाद भी सुलह ना होने की एक वजह ये भी है कि मुस्लिम पक्ष में तो वार्ता का अधिकार फिलहाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को है पर हिंदू पक्ष में वार्ता करेगा कौन। पक्षकारों का मानना है कि अगर कोई वार्ताकार बनता है तो हिंदू पक्ष के करीब 30 पक्षकार क्या उसकी बात मानेंगे। ऐसे में एक बार फिर सुलह के लिये कोशिश करना ज्यादातर पक्षकारों को रास नहीं आ रहा।

ग्यारहवीं कोशिश

आर्ट आफ लिविंग के प्रमुख और धर्मगुरु श्री श्री रविशंकर इन दिनों हर संभव कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस कवायद का हासिल पिछले दस बार जैसा ही होने की आशंका है। दरअसल इस कवायद की शुरुआत ने ही इसका परिणाम की तस्वीर जाहिर कर दी है। बंगलुरू, दिल्ली, लमखनऊ और अयोध्या में श्री श्री ने अपनी कोशिशें जारी रखीं। उनकी नीयत को लेकर तो किसी तरह का कोई शक नहीं पर जिन लोगों से वह यह कोशिश कर रहे हैं उनका विवाद से कोई नाता नहीं है।

श्री श्री ने जिन लोगों से बात की है उनमें एक भी इस विवाद के पक्षकार नहीं हैं। ऐसा कोई भी नहीं है जिसका इस मामले से सीधा मतलब हो। वसीम रिवजी जो कि मंदिर के पैरोकार के तौर पर मुस्लिम पक्ष का चेहरा बने हैं वो सेंट्रल शिया पर्सनल बोर्ड के अध्यक्ष हैं जो कि इस मामले में पक्षकार नहीं है। इसके अलावा बजरंग दल के जो नेता श्री श्री से मिले हैं उनमें भी विनय कटियार को छोड़कर कोई मुकदमे में पक्षकार नहीं हैं। विनय कटियार भी इस मामले के आपराधिक केस में आरोपी हैं पर टाइटिल सूट में उनका कोई योगदान नहीं है।

अमरजीत मिश्र जो कि रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास अयोध्या के राष्ट्रीय महासचिव और वार्ता के प्रभारी बताए जाते हैं वह भी किसी तरह से मुकदमे से संबंधित नहीं है। इस कोशिश को शुरु होते ही खारिज होने की संभावना ज्यादा थी। खुद धर्मगुरु श्री श्री रविशंकर कहा था कि उनके पास वार्ता की शुरुआत में ना कोई फार्मूला नहीं था। रामजन्मभूमि न्यास और हिंदू पक्ष की वकील और मुकदमें में वादी रंजना अग्निहोत्री ने इस वार्ता को खारिज करते हुए कहा था, “न तो वार्ता में वादी है न ही प्रतिवादी तो किस तरह की समझौता वार्ता है ये। जो लोग वार्ता कर रहे हैं उन्हें ना मामले की पूरी जानकारी है न ही केस की कानून समझ। मध्यस्थता का तो कोई सवाल ही नहीं उठ रहा है है, हम लोग हाईकोर्ट में केस जीत चुके हैं एक तिहाई भाग के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी है। तो अब समझौते की जरुरत क्या है। वैसे भी हम सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानने को तैयार हैं।” वहीं इस मामले की पैरवी कर रहे आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के एक्जीक्यूटिव मेंम्बर मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली जो लखनऊ के शहर इमाम भी हैं ने कहा था , “रविशंकर जी हिंदू धर्मगुरु हैं,हमारे शहर आए हैं तो लखनऊ की रवायत के हिसाब से उनका स्वागत है पर इस मसले पर हम कहीं बात करने उनसे मिलने जाने का प्रश्न नहीं है। हम पहले ही बोल चुके हैं कि इस मसले पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही मंजूर है।”

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