अनुराग शुक्ला
तुम कौन है, कहां से आए हो, किस पार्टी से हो, किस पार्टी में जाओगे। किस पार्टी से आए थे, किस पार्टी में जाओगे। जो पद लिया एक पार्टी से लिया, जो पद छोड़ा पार्टी के लिए छोड़ा। तुम आज एक पार्टी के थे, कल दूसरे के हो जाओगे। जो किया टिकट के लिए किया। जो पद लिया कुर्सी के लिए लिया। ये आपको कुछ कुछ गीता सार की तरह पढने में लग रहा होगा पर यह आज की राजनीति का सार है। पिछले चुनाव से पहले हाथी से उतर भगवा ओढ़ने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने अब वही चोला उतार दिया है। वो साइकिल की सवारी का मन बना चुके हैं। इस दिशा में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से मिल चुके हैं। इस घटना के यूपी की राजनीति के सार को फिर से चुनाव से पहले प्रासंगिक बना दिया है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा मंत्रिमंडल से इस्तीफे के साथ ही दर्जनभर और नामों के पार्टी छोड़ने की चर्चाएं तेजी से उभरीं। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने भी बिना कोई देर किए स्वामी प्रसाद के साथ तस्वीर साझा करते हुए उनका और समर्थकों का पार्टी में स्वागत भी कर दिया।
स्वामी प्रसाद मौर्य की इस सेंधमारी की भनक लगते ही आनन-फानन में भाजपा नेतृत्व सक्रिय हुआ और डैमेज कंट्रोल की कवायद तेज हो गईं। तत्काल बाद गृहमंत्री अमित शाह, यूपी प्रभारी धर्मेंद्र प्रधान और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या सक्रिय हो गए। कुछ ही देर में मंत्री धर्म सिंह सैनी, नंद गोपाल नंदी, विधायक धर्मेंद्र शाक्य सहित कइयों ने भाजपा में ही रहने को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी। इन लोगों के नाम भी भाजपा छोड़ने वाली सूची में शामिल होने की चर्चाएं थीं।
भाजपा विधायक धर्म सिंह सैनी ने स्वामी जी के इस्तीफे के तुरंत बाद ही वीडियो जारी कर स्वामी प्रसाद मौर्य को अपना बड़ा भाई तो बताया पर सपा में जाने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि भाजपा में हैं और भाजपा में ही बने रहेंगे। वह पार्टी कतई नहीं छोड़ रहे। वहीं इसी लिस्ट में शामिल बताए जा रहे मंत्री नंद गोपाल नन्दी ने ट्वीट कर स्वामी प्रसाद मौर्य की समझ पर ही सवाल उठा दिए। उन्होंने ये तक कह दिया कि सपा में शामिल होने का आपका फैसला विनाशकाले विपरीत बुद्धि जैसा है। अखिलेश यादव की डूबती नाव की सवारी स्वामी प्रसाद जी के लिए राजनैतिक आत्महत्या जैसा आत्मघाती निर्णय साबित होगा।
गौरतलब है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा खुद भाजपा से सासंद हैं। उन्होंने फिलहाल तो यही कहा है कि सपा में शामिल होने का फैसला उनके पिता है। उनकी विचारधारा अभी भी भाजपाई है। इसके बावजूद स्वामी प्रसाद और उनकी बेटी संघमित्रा ने अभी सपा में शामिल होने की बात को खारिज करते हुए दो दिन बाद फैसला लेने की बात कही।
स्वामी प्रसाद मौर्य की इस्तीफा देने की वजह भी उनका परिवार ही है। वो भाजपा सरकार में मंत्री हैं, उनकी बेटी सासंद है और अब वो अपने बेटे अशोक के लिए भी टिकट मांग रहे हैं। भाजपा में बात नहीं बनती दिखी तो पिछडों का अपमान याद आ गया। पूरी सरकार में मंत्री पद पर बन रहे। अब चुनाव की घोषणा के बाद कह रहे हैं कि पिछड़ों की लड़ाई नहीं लड़ पा रहे थे। सवाल ये भी उठता है कि पिछड़ा कौन है, पिछड़े जिनके नाम पर वोट मांगे जाते हैं या फिर परिवार में राजनीति की कुर्सी दौड़ में पिछड़ रहे उनके बेटे।
सूत्रों की माने तो सपा में भी शामिल होने के पहले जो दो दिन का समय लिया है उसका कारण बी पॉलिटिकल एजजस्टमेंट ही है। दरअसल स्वामी चाहते है कि उनके बेटे को रायबरेली के ऊंचाहार की सीट मिल जाय। वही से सपा के पूर्व मंत्री और ब्राह्मण चेहरों में से एक मनोज पांडेय चुनाव लड़ते रहे हैं। उन्हें रायबरेली सदर में एडजस्ट किए जाने की चर्चा है पर ये एजजस्टमेंट बिना किसी परेशानी के हो इसी वजह से स्वामी प्रसाद जी दो दिन का समय ले रहे हैं। वैसे मकर संक्रांति ने इस तरह के एडजस्टमेंट्स को वैधानिक वजह दे ही दी है।
बसपा से अलग होने के बाद भी स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपनी पार्टी बनाई थी इस बार भी उनके अलग पार्टी बनाने की भी चर्चा थी। स्वामी प्रसाद के भाजपा में रहते हुए ही अलग पार्टी बनाने और सपा से गठजोड़ किए जाने की चर्चाएं भी बीते दिनों हवा में खूब तैरती रहीं। मौर्य खेमे ने इनका कोई खंडन भी नहीं किया। वैसे भी भाजपा में रहते हुए उन्होंने 2019 के चुनाव के आसपास जिन्ना के मुद्दे पर जिन्ना की तारीफ कर ये बता दिया था कि उन्होंने सिर्फ भाजपा का चोला ओढ़ा है, उनके दिल में कई तरह के ख्याल आते हैं।
अब सवाल ये है कि चुनावी मौसम में राजनीतिक घोसला बदलने वालों की हर पार्टी में कितनी पूछ है। दरअसल पार्टियों में दूसरे दलों के नेता को शामिल कर राजनीतिक मैसेज दिया जाता है कि इस बात हमारी दावेदारी सबसे प्रबल है। नेता अगर पिछली सरकार का मंत्री हो बात ही क्या । इसी तरह कहीं भी जब सत्ता धारी दल जनता से दोबारा मैनडेट मांगता है तो वो इस पैतरे को अपना कर साबित करता है कि फिर एक बार उसी की सरकार। यही वजह है कि हर चुनाव से पहले घोसला बदलने वाले पंछियों की पूछ बढ़ जाती है।
हर पार्टी को जिताऊ उम्मीदवार चाहिए। टिकाऊ हो या ना हो तो भी चलेगा। जिताऊ की आस में टिकाऊ को पार्टी के प्रति समर्पण, विचार की प्रतिबद्धता, लंबे समय से उसके पार्टी के रिश्ते का झुनझुना टिका दिया जाता है। भाजपा भी इसका अपवाद नहीं। एक तरफ तो लगातार ये खबरें आती रहती हैं कि भाजपा का कैडर नाराज है। कैडर है तो जाय कहां। वहीं दूसरी तरफ जिताऊ बाहरी नेताओं की आवाजाही भी लगातार जारी है। ऐसा क्यों नही हो सकता कि भाजपा या कोई भी राजनीतिक दल अपने नेताओं का कद बढ़ाए। जाति की जुगत में फिट करने के लिए अपने ही किसी काडर का कद ऊंचा करे। नए वर्ग में संभावना के लिए अपने ही लोगों को खड़ा करे, बड़ा करे। स्वामी प्रसाद मौर्य के इस्तीफे और उसके बाद के डैमेज कंट्रोल की कोशिशों में व्यर्थ हो रहे संसाधन ने एक बार पुराने सवाल को सुरसा बना दिया है कि क्यों ना अपने ही कार्यकर्ता को ताकत दें। इस ताकत देने में देर लग सकती है पर ये मिल सकी तो टिकाऊ भी होगी और जिताऊ भी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)